बुधवार, 26 जून 2013

लाशों के ढेर पर महामंडलेश्‍वर का खिताब

उत्‍तराखंड के आपदाकाल में आंसुओं से भीगे और भूख से तड़पते लोगों को उपदेश देते हुये और स्‍वयं लाशों के ढेर पर बैठकर मुस्‍कुराते हुये उपाधि प्राप्‍त करने का कोई सीन यदि दिखाई तो क्‍या अनुमान लगायेंगे हम और आप...
क्‍या कहेंगे ऐसे धर्माचार्यों को जो इस दौरान मुस्‍कुराकर उत्‍तरीय ओढ़ रहे हैं ....
क्‍या कहेंगे ऐसे लोगों को जो उपाधि लेने के उपरांत विभिन्‍न व्‍यंजनों से रसास्‍वादन कर अपनी जीभ को तृप्‍त कर रहे हों....
किस नाम से पुकारेंगे उन लोगों को जो धर्म की उस व्‍याख्‍या को तार-तार करने में लगे हों जो सर्वप्रथम भूखे को भोजन कराने की सीख देती है...और जिसके तहत भोजन से पहले पशु-पक्षियों के लिए भी 'ग्रास' निकालने का नियम है...
जी हां, कल तमाम सनातनी श्रद्धालुओं की आस्‍था का व्‍यापार करने वाले संतों ने कल हरिद्वार में आपदा के शिकार लोगों के लगभग शवों पर बैठकर वृंदावन स्‍िथत दुर्गा भक्‍ति तंत्र साधना केन्‍द्र के महंत नवल गिरी को महामंडलेश्‍वर की उपाधि प्रदान करने के उपरांत जो उत्‍सव मनाया उसकी निंदा में जो कुछ न कहा जाये....कम ही रहेगा।
ज़रा सोचिए कि एक ओर गंगा में ऊपर पहाड़ों से बहकर आई लाशें हैं और उसी गंगा के किनारे कल दुर्गाभक्‍ति तंत्र साधना चैरिटेबल ट्रस्‍ट के संस्‍थापक नवल गिरी को एक समारोह आयोजित कर जूना अखाड़ा के संतों द्वारा महामंडलेश्‍वर बनाया जा रहा था।
यह कथित धार्मिक उत्‍सव ठीक उसी समय उल्‍लास में डूबा हुआ था जब आपदा पीड़ितों को बचाकर लाते हुये एक हैलीकॉप्‍टर गौरीकुंड में क्रैश हो गया जिसमें कुल 20 लोग मारे गये। बेशर्मी की इंतहा देखिये कि उत्‍सव में मौजूद इन संतों ने आपदा पर शोक तक जताना मुनासिब नहीं समझा, कुछ करने की बात तो बहुत दूर रही।  
यूं तो उत्‍सवधर्मी हमारे समाज में आम कुटिलजनों व राजनेताओं के एक आंख से रोने के साथ साथ एक आंख से हंसने के भी उदाहरण हर रोज कहीं न कहीं देखने को मिलते हैं मगर कथित रूप से स्‍थापित 'महान' संतों ने जिस समय और जिस तरह उत्‍सव मनाने की बेशर्मी दिखाई वह स्‍वयं इनके ही औचित्‍य पर प्रश्‍नचिन्‍ह लगाने को काफी है।
''जैसा खाए अन्‍न वैसा रहे मन'' की परिणति अगर देखनी हो तो यह एक वाकया काफी है ये बताने को कि लाखों आमजनों को धर्म की आड़ में किस तरह बेवकूफ बना रहे हैं ये हमारे ''पूज्‍यनीय संत''। काले धन को बचाने की आड़ में दिये जा रहे ''दान'' का असर किस तरह इन 'संतों-महामंडलेश्‍वरों-शंकराचार्यों की बुद्धि नष्‍ट भ्रष्‍ट कर चुका है, यह बानगी इन्‍होंने स्‍वयं पेश कर दी।
आंखें मूंदकर इनके पैरों में ढोक देने वाले आमजन को यह समझना होगा ही कि निकम्‍मेपन को संतत्‍व का जामा पहनाकर किस तरह कुछ धार्मिक माफिया किस तरह उनकी धार्मिक भावनाओं का दोहन कर रहे हैं।
ऐसे में यह बात अगर उठती है कि शंकराचार्यों ने उत्‍तराखंड के तीर्थों और गंगा की दुर्दशा पर नेताओं और कॉरपोरेट की तरह ही रवैया बनाये रखा तो इसमें गलत क्‍या कहा गया।
शक्‍तिपीठों, अखाड़ों और आश्रमों के जमावड़े वाले ऋषिकेश-हरिद्वार में मौजूद संतों ने तो अमानवीयता की सारी हदें पार कर दीं वरना क्‍या ऐसा संभव था कि हजारों की तादाद में वहां मौजूद संत मिलकर पीड़ितों को राहत न दे पाते।
इसके अपवाद स्‍वरूप केंद्र सरकार की आंख की किरकिरी बने पतंजलि योगपीठ के कार्यकर्ताओं ने बाबा रामदेव के नेतृत्‍व में आपदा पीड़ितों के लिए बेहद सराहनीय काम किया और अब भी कर रहे हैं।
इस घटना से यह सबक लिया जाना चाहिये कि धर्म को आस्‍था के इन ढोंगियों के मुलम्‍मे की जरूरत नहीं। लानत है ऐसे महामंडलेश्‍वरों पर जो धर्म को आड़ और व्‍यापार बनाकर भौतिक सुखों का रसास्‍वादन कर रहे हैं।
-अलकनंदा सिंह

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