मंगलवार, 8 अप्रैल 2014

राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे.....

आज रामनवमी है, भगवान श्रीराम का जन्‍म दिन। पौराणिक कथाओं के अनुसार आज ही के दिन भगवान श्रीराम और माता सीता का विवाह भी हुआ था।  श्रीराम के चरित्र को जानने के लिए समय-समय पर रचे गए महाकाव्‍यों की लंबी श्रृंखला है जिनमें वाल्‍मिकी रामायण और गोस्‍वामी तुलसीदास कृत श्री रामचरित मानस सर्वाधिक प्रचलित हैं। अन्‍य महाकाव्‍यों की तरह इन दोनों में भी भगवान श्री राम में रम जाने की सीख दी गई है ताकि उनके मर्यादा पुरुषोत्‍तम रूप का यथासंभव अनुकरण किया जा सके।
हम सोचते हैं कि आज श्रीराम जैसा विनम्र, दयावान और साहसी व्‍यक्‍तित्‍व धारण कर पाना कठिन है या उनके जैसा आचरण अपनाना किसी स्‍वप्‍न सरीखा है क्‍योंकि वो भगवान थे...अवतार थे...या मर्यादा पुरुषोत्‍त्‍म थे...इसलिए तमाम गुण उनमें स्‍वत: ही आ गये होंगे ...आदि आदि। मगर क्‍या कभी हमने सोचा है कि हमारे लिए श्रीराम जैसे आचरण कर पाना बिल्‍कुल असंभव भी तो नहीं। आखिर श्रीराम ने भी वह सब-कुछ मनुष्‍य रूप में किया और जिसका सीधा संदेश यही जाता है कि मनुष्‍य रूप में भी वह सब कर पाना संभव है। वह सब,जो मन की दृढ़ता और उसकी सहजता पर निर्भर है।
जो रम जाये वो राम, जो रम कर निर्मल हो जाये वो राम, जो निर्मल हो कर शिला को पानी की तरह कर दे... वो राम, जो पानी की तरह हर स्‍थिति में राह बना ले ... वह राम और जो स्‍वयं पानी-पानी हो सकने का हुनर पा ले... वो ही राम। राम तो हमारे मन में हैं, सोच में हैं, जीवन जीने के तरीके में है। राम स्‍वयं के भीतर रमने में है...राम स्‍व को पहचानने में है...चिंतन में है...मनन में है। इससे ज्‍यादा सहजता और निर्मलता क्‍या हो सकती है कि केवट, शबरी, अहिल्‍या में ही नहीं... राम तो ताड़का, मारीच, सूपर्णनखा से लेकर रावण के भी चिंतन में है।
विडंबना तो ये रही कि भारतीय कथाकारों की तरफ से ऐसे कोई प्रयास नहीं किये गये कि श्रीराम का चरित्र अतिशयोक्‍ति भरी धार्मिक कथाओं से ऊपर उठकर यथार्थ के धरातल पर उतर पाता और फिर घर-घर में राम का चरित्र बसता...हर घर में होता मार्यादाओं का पालन ...।देश, समाज और मन के अंदर तक आज जो विध्‍वंसक प्रवृत्‍ति तैर रही है उससे निजात पाने का यह सर्वाधिक सशक्‍त तरीका होता परंतु ऐसा हो ना सका । रचनाकारों ने श्रीराम को एक चरित्र की जगह भगवान के रूप में स्‍थापित किया लिहाजा रामनवमी के दिन हम श्रीराम को नैवेद्य चढ़ाकर त्‍यौहार तो मना लेते हैं मगर श्रीराम के चरित्र का अनुकरण करने से डरते हैं जैसे कि उनका अनुकरण करके भगवान से तुलना करने का पाप कर रहे हों। क्‍या ये श्रीराम के प्रति अनास्‍था का ही एक विकृत रूप नहीं कि हम उन्‍हें तो पूजें पर उनके चरित्र को अपनाने से दूर भागें...क्‍यों...?
श्रीराम को हम भगवान विष्‍णु का अवतार मानते हैं इसलिए मनुष्‍य रूप में किये गए उनके क्रिया-कलापों से लेकर चक्रवर्ती सम्राट बनने तक की यात्रा को चमत्‍कार मानते आये हैं परंतु ऐसा है नहीं। नियमों का पालन, सीखने की ललक, अपनाने की प्रवृत्‍ति और वचनबद्धता कुछ ऐसे गुण हैं जो स्‍वयं में किसी चमत्‍कार से कम नहीं । इसे यूं भी समझा जा सकता है कि श्रीराम जैसा अनुशासित व मर्यादित जीवन किसी को भी चमत्‍कारिक रूप प्रदान करने में सक्षम है। प्रकृत्‍ति के रक्षण, उससे तारतम्‍य बैठाकर चलने तथा रहने एवं सामाजिक समरसता के लिए वंचितों को गले लगाने का जो काम श्रीराम ने किया, उसे यदि आज भी अमल में लाया जाए तो रामराज्‍य स्‍थापित करना तथा रामचरित्र अपनाना बहुत कठिन नहीं होगा। यदि ऐसा कर पाये तो निश्‍चित ही श्रीराम को लेकर रची गई धर्मांधता से हम बाहर निकलेंगे और समस्‍याओं का निराकरण आसानी से कर पायेंगे।
निश्‍चित जानिए कि कोई अवतार ऊपर से नहीं टपकने वाला, हमें स्‍वयं ही रामचरित्र में इतना रमना होगा कि वह आत्‍मसात हो जाएं, हम बह जायें राम की उन सहजताओं में जो हर यु्ग एवं हर परिस्‍थिति में धरती को स्‍वर्ग बनाने की क्षमता रखती है।

- अलकनंदा सिंह 

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