सोमवार, 16 जनवरी 2017

अपभ्रंशित रूप में डरा रहे हैं मथुरा के चतुर्वेदी परिवारों के संस्‍कार

मानवीय व्‍यवहार की जटिलता पर बड़े-बड़े शोध करने वाले मनोवैज्ञानिकों के लिए एक सरल साधन (माध्‍यम)  हो सकते हैं हमारे लोक जीवन के रीति रिवाज और संस्‍कार।
लोक जीवन में बच्‍चे के जन्‍म से लेकर वृद्धावस्‍था तक इतने कायदे-कानून बिखरे पड़े हैं कि हर एक का जस का तस पालन कर लेना अनेक सीख दे जाता है।
साथ  ही इन्‍हीं परंपराओं और रीतियों-रिवाजों का स्‍याह पहलू भी है ,  वि  यह  है कि ये तकरीबन सब की सब अब अपने अपभ्रंश रूप में हमारे जीवन में मर्यादा व अनुकूलन कम,बल्‍कि  खीझ अधिक लाने लगी हैं।

वैज्ञानिक रूप से भी सिद्ध अच्‍छी रीति को भी अपभ्रंशित रूप दुष्‍परिणाम देने लगे हैं। समृद्ध और प्रगतिवादी सोच रखने वाला मथुरा का चतुर्वेद समाज ऐसी ही कुछ कुरीतियों के चंगुल में फंसता जा रहा है और ऐसी कुरीतियों को बढ़ाने में महिलाओं का बड़ा हाथ है। इस समाज में आज भी दहेजरहित विवाह होते हैं, आज भी लड़की अपनी पसंद नापसंदगी को जाहिर कर सकती है। आज भी छेड़खानी, चोरी , छीनाझपटी, हत्‍या या ऐसे कोई भी अपराध चौबियापाड़ा में ना के बराबर होते हैं। संकरी गलियां आज भी सुरक्षा की दृष्‍टि से अभेद्य मानी जाती हैं। आज भी पूरा समाज आपसी झगड़े झंझट मिलबांटकर सुलझाा लेता है। ऐसे समाज में यदि कुरीतियां सिर उठाने लगें तो समाज की आगामी दशा का  अंदाजा लगाया जा सकता है।

चूं कि मथुरा के चतुर्वेदी परिवार में मेरा ससुराल है, तो एक कुटुंबीजन की मृत्‍यु के बाद पिछले 13  दिनों से रीति-रिवाजों और संस्‍कारों का जो नाटकीय रूप यहां देखने को मिला, उसने सनातन धर्म में जीवन की मर्यादाओं का महत्‍व बताने वाली सारी विधियों-सारे नियमों की जिस तरह धज्‍जियां बिखेरीं, वह बताती हैं कि कुछ भी शाश्‍वत नहीं। ना ही कोई धर्म और ना उसकी मर्यादाएं। हम ही धर्म बनाते हैं और हम ही उसे ज़मींदोज भी करते  जाते  हैं, अपने कृत्‍यों से ।
इन 13 दिनों में मानवीय व्‍यवहार की वीभत्‍सता अपने चरम पर देखने को मिली।रिश्‍तों का खोखलापन , आधा अधूरा अपनापन के साथ  कुछ रीतियां तो ऐसी देखीं कि मैं स्‍वयं को लिखने से रोक ना सकी।

कृष्‍ण के सखा रूप में प्रसिद्ध ''मथुरा के चतुर्वेदी'' स्‍वयं को ब्राह्मणों में ही सर्वोच्‍च 'मानते' हैं और यमुनापुत्र कहे जाते हैं। चारों वेदों के ज्ञाता माने जाते हैं और ये अधिकांशत: सत्‍य भी है। माथुर-चतुर्वेद समाज में जो अच्‍छी रीतियां हैं जैसे कि  महिलाओं को पुरुषों से अधिक अधिकार मिले हुए हैं। महिलायें ही रिश्‍ते कराने से लेकर शादी-ब्‍याह तक में सारी जिम्‍मेदारियों का वहन करती हैं। महिला का मायका पक्ष अन्‍य जाति व समाजों से इतर अपने पूरे अधिकार व दखल रखता है, यहां वह दोयम नहीं है।

पुरुषों में आज भी सनातन संस्‍कार पूरी तरह विद्यमान हैं, जिनमें एक है ''उपनयन संस्‍कार'' जिसका यथारूप में नई पीढ़ी द्वारा भी पूरी उम्रभर निभाया जाना, बेशक आज के भौतिकतावादी युग में आश्‍चर्य से कम नहीं वो भी तब जबकि आज नई पीढ़ी दुनिया के हर कोने में अपनी उपस्‍थिति दर्ज करा रही है। मगर  बात यहां भी वही है कि संतुलन गड़बड़ा गया है, महिलाओं को जो अधिकार मिले वह उनका दुरुपयोग करने लगीं। रीतियों  को निभाने में जो वैज्ञानिक तत्‍व मौजूद था ,वह अपने विकृत रूप में सामने आ रहा है।

इसी दुरुपयोग की बानगी है भोजन का अपव्‍यय। पिता की मृत्‍यु के बाद बेटे द्वारा दायित्‍व  निभाने के क्रम में सूतक के दौरान उसके लिए प्रतिदिन रसोई से जो भोजन निकाला जाता है, वह आज के  समय में 5 लोगों का भोजन हो सकता है। बेटे के खाने के बाद बचा हुआ भोजन यूं ही आवारा जानवरों, बंदरों व कुत्‍तों के लिए डाल दिया जाता है जिसे जानवरों द्वारा पूरी गली (अमूमन सारा समाज आज भी मथुरा के अंदरूनी क्षेत्र के पुश्‍तैनी घरों में निवास करता है) में बिखेर दिया जाता है, इस रिवाज को बदलने के फिलहाल दूर-दूर तक कोई आसार दिखाई नहीं देते। 13 दिन के बाद अर्थात् तेरहवीं हो जाने के बाद भी ये सिलसिला पूरे एक वर्ष तक चलता है, बस भोजन ग्रहणकर्ता बदल जाता है, वह कोई  ब्राह्मण या कोई बहन-बेटी-बुआ-भांजी या भांजा होता है मगर भोजन का दुरुपयोग जस का तस होता रहता है। ऐसे में जो आर्थिक रूप से कमजोर परिवार और भी विपन्‍न होता जाता है। शायद इसीलिए पंजाबियों से ली गई एक कहावत चतुर्वेदी पुरुषों ने अपनाई भी है ”जिवते बात ना पुछ्छियां और मरे धड़धड़ पिट्टियां।  अर्थात् इस पूरे कर्मकांड में जो गरीब है उसका तो मरना हो जाता है ना।

सूतक की अवधि में साबुन, शैम्‍पू, तेल आदि प्रसाधन का प्रयोग वर्जित है, चाहे गंदगी से युक्‍त भोजन-कपड़े  कितना भी संक्रमित हो जाएं। तेरहवीं के संस्‍कार के बहाने मुझे जो मानवीय व्‍यवहार के कटु-किस्‍से सुनने को मिले उनका ज़िक्र फिर कभी करूंगी…कैसे…किस रूप में…यह अभी नहीं पता मगर करती रहूंगी ताकि एक संभ्रांत समाज अपने भीतर पल रही बुराइयों को दूर कर आत्‍मावलोकन तो कर सके।
संस्‍कारों को अपने हिसाब से चलाने की ”रीति” चतुर्वेदी महिलाओं की तमाम ''अच्‍छाइयों'' पर भारी पड़  रही है। डर है कि कहीं जेनेटिकली यानि विरासतों में मिली अच्‍छाइयां पूरे समाज के सुसंस्‍कारों को विपरीत दिशा में ना मोड़ दें और अपभ्रंशित समाज अपनी अनमोल विरासतों  को भूलने के लिए अभिशप्‍त ना हो जाए।
– सुमित्रा सिंह चतुर्वेदी

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