सोमवार, 13 फ़रवरी 2017

इक तर्ज़-ए-तग़ाफ़ुल है सो वो उनको मुबारक...फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के हस्‍ताक्षर



इक तर्ज़-ए-तग़ाफ़ुल है सो वो उनको मुबारक, 
इक अर्ज़-ए-तमन्ना है सो हम करते रहेंगे !!
-फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

जब कोई शख्‍स अपनी मिट्टी से...वतन से...मोहब्‍बत से...बच्‍चों से...अलग कर दिया जाये और वह शायर हो तो अलफ़ाज खुदबखुद कलम से बाहर तैरने लगते हैं...और बहते हुए किन्‍हीं किनारों पर मौजूद लोगों को उन अहसासों में भिगो देते हैं जो इन्‍होंने अपने लिए जिए होते हैं।
आज यानि 13 फरवरी को ही आधुनिक उर्दू शायरी को एक नई ऊँचाई देने वाले फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का जन्‍म हुआ था। साहिर लुधियानवी , क़ैफ़ी आज़मी और फ़िराक़ गोरखपुरी आदि उनके समकालीन शायर थे।

लियाकत खान के जब पाकिस्‍तान के वजीरे-आज़म थे तब उन्‍हें सरकार के तख़्तापलट की साजिश रचने के जुर्म में कैद कर लिया गया था। इस दौरान (१९५१‍ - १९५५) में लिखी गई उनकी कविताएँ बाद में बहुत लोकप्रिय हुईं और उन्हें "दस्त-ए-सबा (हवा का हाथ)" तथा "ज़िन्दान नामा (कारावास का ब्यौरा)" नाम से प्रकाशित किया गया।
इनमें जो सबसे अधिक लोकप्रिय हुई ,वह उस वक़्त के शासक के ख़िलाफ़ साहसिक लेकिन प्रेम रस में लिखी गई शायरी थी जिसको आज भी याद किया जाता है -

    बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
    बोल, ज़बाँ अब तक तेरी है
    तेरा सुतवाँ जिस्म है तेरा
    बोल कि जाँ अब तक तेरी है

    आईए हाथ उठाएँ हम भी
    हम जिन्हें रस्म-ए-दुआ याद नहीं
    हम जिन्हें सोज़-ए-मुहब्बत के सिवा
    कोई बुत कोई ख़ुदा याद नहीं

    लाओ, सुलगाओ कोई जोश-ए-ग़ज़ब का अंगार
    तैश की आतिश-ए-ज़र्रार कहाँ है लाओ
    वो दहकता हुआ गुलज़ार कहाँ है लाओ
    जिस में गर्मी भी है, हरकत भी, तवानाई भी
    हो न हो अपने क़बीले का भी कोई लश्कर
    मुन्तज़िर होगा अंधेरों के फ़ासिलों के उधर
    उनको शोलों के रजाज़ अपना पता तो देंगे
    ख़ैर हम तक वो न पहुंचे भी सदा तो देंगे
    दूर कितनी है अभी सुबह बता तो देंगे
    (क़ैद में अकेलेपन में लिखी हुई)

    निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन
    के जहाँ चली है रस्म के कोई न सर उठा के चले
    गर कोई चाहने वाला तवाफ़ को निकले
    नज़र चुरा के चले, जिस्म-ओ-जाँ बचा के चले

    चंद रोज़ और मेरी जाँ, फ़क़त चंद ही रोज़
    ज़ुल्म की छाँव में दम लेने पर मजबूर है हम
    और कुछ देर सितम सह लें, तड़प लें, रो लें
    अपने अजदाद की मीरास हैं, माज़ूर हैं हम

    आज बाज़ार में पा-बेजौला चलो
    दस्त अफशां चलों, मस्त-ओ-रक़सां चलो
    ख़ाक़-बर-सर चलो, खूँ ब दामां चलो
    राह तकता है सब, शहर ए जानां चलो ।

...और इस तरह शायरी की एक अज़ीम शख्‍सियत फ़ैज अहमद फ़ैज हमारे दिलों को हमेशा अपने लफ़्जों से तरबतर करते रहेंगे।

- अलकनंदा सिंह


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