सोमवार, 3 अप्रैल 2017

बात तो आलस्‍य की ही है ना...

विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य दिवस आगामी 7 अप्रैल को मनाया जाएगा तब तक देखें आप स्‍वयं को स्‍वस्‍थ रखने के लिए क्‍या क्‍या कोशिश करते हैं। इस बार वर्ल्‍ड हेल्‍थ ऑरगेनाइजेशन ने इसकी थीम रखी है ''अवसाद''..; और अवसाद है मन की बीमार अवस्था जिसे सिर्फ स्‍वयं के मन से ही ट्रीट किया जा सकता है।

जब बात मन और इच्‍छाशक्‍ति की ही है तो इस संबंध में चार्वाक का "यावज्जीवेत सुखं जीवेद ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत, भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः" सिद्धांत पूरी तरह निरर्थक हो जाता है क्‍योंकि सुख से जीने के लिए यदि ऋण ले भी लिया तो उसे चुकाने के लिए भी मन पर जो बोझ रहेगा ,वह हमेशा के लिए रोगों को आमंत्रित कर सकता है।

इसलिए चार्वाक् के सिद्धांत से हटकर आप स्‍वयं अपनी तरह अपने लिए अपनी इच्‍छा से सोचें कि हमने क्‍या क्‍या किया और क्‍या क्‍या करना है।

हममें से अधिकतर को आपने यह कहते सुना होगा, '' क्‍या करें...रोग है कि जाने का नाम ही नहीं ले रहा...इस बीमारी ने तो नाक में दम कर रखा है...ना जाने कब इससे छुटकारा मिलेगा'' या आपके द्वारा कोई सहज और सर्वथा साधारण व प्रभावी उपाय बताए जाने पर कुछ लोग ये भी कहते सुने होंगे,'' क्‍या करें इतना समय ही कहां है जो हम ये कर पाऐं'' मगर ये  100 प्रतिशत सही मानिए कि जो आपके कहने पर अपना जवाब तैयार रखते हैं और चट से आपकी सारी सलाहों पर दे मारते हैं , वे स्‍वयं के लिए भी ये चाहते ही नहीं कि वे निरोग रहें।

कुछ लोग ऐसे भी मिलेंगे जो आपसे स्‍वस्‍थ रहने की या अपनी बीमारी की चर्चा इस उद्देश्‍य से करते हैं कि आप कोई उपाय सुझाऐं ,आपके द्वारा इलाज की विधि बताते ही वे अपना ज्ञान कमजोर होते देख आक्रामक मुद्रा में कहते हैं कि '' हां, ये तो हमें पता है...मगर करने का टाइम किसके पास है''। ऐसे में आप उनकी इस आक्रामक प्रतिक्रिया से आहत ना हों..ना...ना कतई नहीं। ऐसे व्‍यक्‍ति स्‍वयं को निरोग रखना चाहते हैं परंतु उनके भीतर इच्‍छाशक्‍ति की बेहद कमी होती है जो चाहती है कि कार्य पूरा हो मगर वे स्‍वयं ना करें। हालांकि ऐसा वे जानबूझकर करते हैं या आदतन अभी इस बावत कोई शोध भले ही ना आया हो मगर हमारी-आपकी कहानी है  जो रोज-ब-रोज घटती है। निरोग रहने की इच्‍छाशक्‍ति के आगे ऐसा कोई कारण नहीं कि रोग ठहर जाए, देर हो सकती है मगर रोग को जाना ही होगा।

संक्रामक रोगों की बात छोड़ दें तो लाइफस्‍टाइल से उपजे रोगों के उपजने और फैलने में मन और इच्‍छाशक्‍ति का रोल बेहद अहम होता है। मन की तैयारी और उसका शरीर पर अनुपालन करने तक निरोग रहने के लिए किए उपाय स्‍वयं ही करने होंगे।

किसी भी प्रकार का आलस्‍य ''रोग- आमंत्रण'' का पहला कारण है।  प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति की कामना होती है सर्वथा निरोग रहने की मगर उसके लिए वह स्‍वयं जब तक प्रयास नहीं करेगा तब तक निरोग रहने की उसकी आकांक्षा सिर्फ मन की कल्‍पना तक ही सीमित रह जाएगी। अगर आप सुबह जल्‍दी नहीं उठते, अगर आप रात को देर से सोने का बहाना अपने लिए बचाकर रखते हैं , अगर आप योग और किसी अन्‍य कसरत से दूरी बनाकर रखते हैं, अगर आप कर्म की अपेक्षा प्रवचन में विश्‍वास रखते हैं, अगर आप परहेज से अधिक अधिक दवाओं पर विश्‍वास करते हैं, अगर आप शारीरिक श्रम कम करते हैं और अनेकानेक बहानों की तलाश में रहते हैं तो निश्‍चित जानिए आप का निरोग रहने का सपना महज सपना ही रह जाने वाला है।

बाबा रामदेव हो, श्री श्री रविशंकर या प्रधानमंत्री मोदी ये तीनों ही भरपूर कोशिश कर रहे हैं कि निरोग रहने के लिए देश का हर व्‍यक्‍ति अपने स्‍तर पर ऊर्जावान बने, वह मानसिक और शारीरिक तौर पर स्‍वस्‍थ रहे। योजनाओं के साथ साथ ये तीनों ही अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ रहे मगर अब भी रोगियों की संख्‍या घटने का नाम नहीं ले रही क्‍योंकि जो पहला कारण है '' अपनी देह के रखरखाव के प्रति आलस्‍य '' उसे लेकर तो स्‍वयं संबंधित व्‍यक्‍ति को ही सोचना होगा।
इसीलिए देश में नित्‍य बढ़ रहे रोगियों में संक्रामक -लाइलाज रोगियों का आंकड़ा उतना नहीं है जितना कि लाइफस्‍टाइल रोगियों का।

निश्‍चित ही चार्वाक् के सिद्धांत में से ऋण लेकर घी पीने को यदि निकाल देने का समय है अब क्‍योंकि वह ना तो समयानुकूल है और ना ही परिस्‍थितनुकूल, तो सुख से जीने के लिए निरोग रहना जरूरी है और इसके लिए स्‍वयं ही (अपने भीतर से भी) आपको ही कोशिश करनी होगी।

-  अलकनंदा  सिंह

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