मंगलवार, 8 मई 2018

जीवन की प्रमेय में रत्‍नीबाई

हमने 10वीं कक्षा के गणित में पाइथागोरस प्रमेय को पढ़ा था। पढ़ा क्‍या था, बल्‍कि यूं कहिए…अपने गणित के अध्‍यापकों पर खिन्‍न होते-होते ‘बमुश्‍किल’ रटा था कि यदि किसी त्रिभुज की दो भुजाओं की लंबाई और उसके कोण ज्ञात हों तो तीसरी भुजा की माप ज्ञात की जा सकती है। 
देखिए नीचे चित्र में ------- 
तब उसे हम महज गणित की एक विधि मात्र जानकर रटते थे। तब उस उम्र में ये पता भी कहां था कि ये प्रमेय सिर्फ गणित के सवाल हल करने की विधिमात्र नहीं, जीवन के समकोणों की परस्‍पर विरोधी भुजाओं के एक निश्‍चित बिंदु पर मिलने का दर्शन बताने का रास्‍ता है। वो रास्‍ता जिसके आज बहुत गहरे मायने हैं। जी हां, तमाम विरोधाभासों, उलझनों को सुलझाने का सरल सा तरीका है ये, कि यदि हमें अपनी सोच का कोण पता हो और कोई एक ”विकल्‍प” भी समाने हो तो समस्‍या सुलझाने में देर नहीं लगती।
पिछले कई दिनों से कर्नाटक चुनाव, चीफ जस्‍टिस के खिलाफ महाभियोग का प्रस्‍ताव, जिन्‍ना की फोटो हटाए जाने से आहत एएमयू के छात्रों द्वारा की गई कथित आज़ादी की मांग, कश्‍मीर में समाजशास्‍त्र के एक असिस्‍टेंट प्रोफेसर का आतंकी बनते ही मारा जाना तथा पत्‍थरबाजों द्वारा एक पर्यटक की हत्‍या कर देना और रेप की अनगिनित खबरें सामने आईं जो देश के भीतर ”असहमतियों से उपजे युद्ध” सरीखी थीं।
ये खबरें हमारे सहिष्‍णु देश के कई वैचारिक व सहमति-असहमतियों के ‘समकोणों’ को दर्शाती हुई हमारे सामने आईं मगर इस सबके बीच एक खबर और भी थी जिस पर शायद ही किसी का ध्‍यान गया हो।
खबर यह थी कि रत्‍नीबाई अपनी चप्‍पलों को अलमारी में ताला लगाकर रखती हैं।
वही रत्‍नीबाई जो तेंदूपत्‍ता संग्राहक हैं, जो गोंडी बोली बोलती हैं, जिन्‍हें बीजापुर, छत्तीसगढ़ के जांगला कस्बे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने हाथों से चप्‍पल पहनाई थीं, जिन्‍होंने चप्‍पल पहने बिना उम्र के लगभग साढ़े 6 दशक गुजार दिये (ये उन्‍होंने ही अनुमान से बताये), जिन्‍होंने किसी भी तरह के सम्‍मान का कोई मुगालता नहीं पाला, उन्‍हें पहली बार सम्‍मान मिला और वो भी स्‍वयं देश के प्रधानमंत्री के हाथों चप्‍पल पहनने का…उनके लिए सोचिए उन चप्‍पलों का महत्‍व और उस क्षण का रोमांच जो वो शायद ही अभिव्‍यक्‍त कर पायें। बुजुर्ग रत्नीबाई घर से खेत और खेत से जंगल तक अब भी नंगे पांव ही घूमती हैं, चप्पलों को तो उन्होंने अपने झोपड़ेनुमा घर के इकलौते कमरे में धान के बोरे में सहेजकर रख दिया है।
इतना ही नहीं, कमरे का ताला बंद …और चाबी रत्नीबाई के गले में। प्रधानमंत्री के हाथों मिली चप्पल को रत्नीबाई बेहद खास मौकों पर ही निकालती हैं, निहारती हैं, अपने तरीके से पोंछती हैं और इसके बाद उसे यूं पहनती हैं मानों पांव में चप्पल नहीं, किसी बादशाह ने सिर पर ताज धारण किया हो।
बीजापुर के ही ब्लॉक मुख्यालय भैरमगढ़ से सटे बंडपाल गांव में रत्नीबाई का भरा पूरा परिवार है, लेकिन संपत्ति के नाम पर कुछ भी नहीं। मिट्टी के घर के बाहर महुआ सुखाती रत्नीबाई ने गले में सूत की डोरी से बंधी कमरे की चाबी दिखाते हुए गोंडी बोलती हैं ”मैं अपनी चप्‍पलों को ताला लगाकर रखती हूं, इसे मोदी ने दिया है, बाहर क्यों निकालूं भला। हर जगह पहनने के लिए इसका इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। यह बहुत खास चीज है, खास मौके के लिए ही है।”
सोचकर देखिए जहां देश में पढ़े लिखे लोग एक विभाजनकारी की तस्‍वीर को हटाने पर इतने पगलाए जा रहे हैं कि स्‍वयं विभाजनकारी सोच के तहत अपने ही देश में ही देश से आज़ादी की मांग कर रहे हैं, हमारे ही टैक्‍स पर पल कर हमसे ही द्रोह पाले बैठे हैं, मीडिया भी उन्‍हें ही खास तवज्‍जो देता है और कई कई घंटों की बहस कर डालता है, वहीं रत्‍नीबाई जैसे लोग भी हैं जिनकी सारी दुनिया उन बहुमूल्‍य ”चप्‍पलों” तक सिमटी है, जिन्‍हें खुद प्रधानमंत्री ने उनके पैरों में पहनाया था।
कितने सरल, कितने सहज भावों से युक्‍त रत्‍नीबाई देश के विभाजनकारियों और उनकी जैसी सोच रखने वाले कथित सेक्‍यूलरिस्‍ट्स के लिए एक सबक हैं कि आमजन की तरह सोचकर देखिए तो सही, अपनी दुनिया बड़ी खूबसूरत लगने लगेगी।
देश के दो टुकड़े करने वाले द्रोहकारी व्‍यक्‍ति की तस्‍वीर को छाती से लगाकर कुछ भी ना मिलेगा सिवाय घृणा के। मन में द्रोह पालकर कभी किसी का भला नहीं हुआ।
रत्‍नीबाई बन कर देखिए…देश के विकास के हर कोण, देश में फैली सारी भुजाऐं अपने आप पाइथागोरस प्रमेय की तरह उस तीसरी भुजा को सामने ले आऐंगी जो विपरीत सोचों को जोड़कर एक भावमय और प्राणवान देश बनाती हैं। जीवन की प्रमेय में रत्‍नीबाई हमारी हीरो हैं ना कि पत्‍थरबाज और जिन्‍ना समर्थक।
-अलकनंदा सिंह 

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